देश से हटकर है हाटियों का यह पर्व- कबायली क्षेत्र की दिखाता है झलक ddnewsportal.com

देश से हटकर है हाटियों का यह पर्व- कबायली क्षेत्र की दिखाता है झलक ddnewsportal.com

गिरिपार क्षेत्र में अनोखे ढंग से मनाई जाती है बुढ़ी दिवाली

देश से हटकर है हाटियों का यह पर्व, कबायली क्षेत्र की दिखाता है झलक, देखें तस्वीरों में...

समूचे देश में दीपावली कार्तिक माह की अमावस्या को मनाई जाती है लेकिन जिला सिरमौर के ट्रांसगिरी क्षेत्र में दीवाली के ठीक एक महीने बाद फिर से दीवाली मनाई जाती है। इस अनोखे त्यौहार को बुढ़ी दिवाली कहा जाता है। इस संबंध में दो मान्यताएं विशेष तौर पर प्रचलित है। कुछ लोगों का मानना है

कि दिवाली के समय में महाभारत कालीन युद्ध चल रहा था इस युद्ध की समाप्ति के बाद कबायली क्षेत्र में फिर से दिवाली मनाई गई। जबकि एक मान्यता यह भी है कि दैत्य राज बली के दौबारा एक दिन के लिए धरती पर आगमन की खुशी से इस क्षेत्र में बुढ़ी दिवाली की परंपरा शुरू हुई। करीब सात दिनों तक चलने वाला बूढ़ी दीवाली का पर्व बुरी आत्माओं को गांवों से

बाहर खदेड़ने के लिए मशाल यात्रा के साथ ही शुरू होता है। मान्यता है कि गिरिपार क्षेत्र में सतयुग से लेकर बूढ़ी दिवाली की रिवायत चली आ रही है। बुढ़ी दीवाली पर्व की खास बात यह है कि देश भर में अनोखा त्यौहार आज भी प्राचीन तरीके से ही मनाया जाता है। और पाश्चात्य संस्कृति के इस दौर में भी क्षेत्र के लोगों ने इस कबायली परम्परा को संजो कर रखा है। बुढ़ी दीवाली देश भर में प्राचीन संस्कृति के संरक्षण का जीवंत उदाहरण है। जो क्षेत्र के जनजातीय दर्जे की मांग को भी पुख्ता करता है। इस पर्व की शुरुआत पोष माह की अमावस्या की रात को गांव के सांझे प्रांगण में अलाव जलाकर और अगली सुबह मशाल यात्रा निकालकर होती है। मशाल यात्रा के दौरान प्राचीन

वाद्य यंत्रों की धुनों में नाचते गाते मदमस्त लोग देव स्तुतियों के साथ बुरी आत्माओं को भला बुरा कह कर गांव से बाहर खदेड़तें हैं। और बुराइयों को खदेड़ने की खुशी में बलिराज जलाते हैं। क्षेत्र के सैकड़ों गांव में बुढ़ी दिवाली कब से और क्यों मनाई जाती है इसके स्पष्ट प्रमाण तो नहीं है, लेकिन मान्यता है कि जब दैत्यराज बली धरती वामन भगवान को दान करने के बाद पाताल लोक मे चले गए। लेकिन उन्होंने साल मे एक बार पोष माह की अमावस्या मे धरती पर आने का आग्रह किया। इसका उल्लैख श्रीमद्भगवद्गीता मे भी हुआ है। कहते है कि बलिराज के धरती पर आगमन के दौरान कुछ राक्षस भी उनके साथ आते हैं। लेकिन कुछ बुरी शक्तियां वापिस नही लौटती जिन्हे मशाल से जलाकर वापिस भेजा जाता है। क्षेत्र के इंद्र सिंह ठाकुर, पंडित

कंवर शर्मा, पंडित बली राम शर्मा और बहादुर सिंह आदि ने बताया कि गिरिपार क्षेत्र का यह त्यौहार देश की संस्कृति से अलग पारम्परिक त्योहार है जो ट्रांसगिरी क्षेत्र की कबायली झलक दिखाता है। इस दौरान रासा, भियुरी, बालासुनाई और चेता नृत्य आदि की पारंपरिक वेशभूषा में प्रस्तुतियां होती है। वहीं पारंपरिक पकवान बेडोली, असकली और मुड़ा आदि बनाकर मेहमानों को बड़े चाव से परोसे जाते हैं। आजकल क्षेत्र मे यह पर्व धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है।