एक जैसी बिशु मेले की शान-फिर क्यों नही मिली गिरिपार को अलग पहचान ddnewsportal.com

एक जैसी बिशु मेले की शान-फिर क्यों नही मिली गिरिपार को अलग पहचान ddnewsportal.com
फाइल फोटो।

एक जैसी बिशु मेले की शान-फिर क्यों नही मिली गिरिपार को अलग पहचान

हाटी जनजातीय दर्जे की मांग को पुख्ता करती एक और परंपरा बिशु मेलों का आयोजन शुरू, जानिएं क्या होता है खास...

उत्तराखण्ड के जोंसार बावर और हिमाचल के गिरिपार क्षेत्र के सभी पर्व व त्यौहार एक दूसरे से मेल खाते है। हर पर्व मे दोनों क्षेत्रों मे समानता की छाप आज भी देखने को मिलती है। लेकिन फिर भी गिरिपार क्षेत्र आज भी दशकों से अपने अधिकार यानि जनजातिय क्षेत्र को घोषित करवाने की लड़ाई लड़ रहा है। अब क्षेत्र मे अप्रैल माह मे शुरू हुए बिशु मेलों की ही बात करें। गिरिपार और जौंसार क्षेत्र मे सदियों से हर साल बिशु मेलों का आयोजन होता है। यह आयोजन बैसाख की संक्रांति से शुरु होते है। इस दौरान जहां गिरिपार

क्षेत्र मे सुईनल, बागनल, कफोटा, सतौन, तिलौरधार, कांडो, मश्वा, शरली और जाखना आदि गांवों मे हषोल्लास के साथ इन मेलों को आयोजन होता है तो वहीं जोंसार के मोका बागे, देलउ के डांडे, क्वाणू, खुरड़ी के डांडे और टिम्बरा आदि मे भी इसी प्रकार के मेलों का आयोजन होता है। इन मेलों की समान विशेषता यह होती है कि मेलों मे जहां पारंपरिक परिधानों मे मैलार्थी पंहुचते है वहीं मेलों मे संस्कृति की छटा को बिखरते रासा नृत्य और ठोडो नृत्य का आयोजन करते है। आज भी हिमाचल के गिरिपार के बिशु मेलों मे जोंसार के लोग ठोडो नृत्य खेलने आते है तो गिरिपार के लोग भी जोंसार के मेलों मे उक्त नृत्य का आनन्द लेते है। गिरिपार के सुईनल और जोंसार के क्वाणू मे बिशु मेले मे यह नजारा आम देखा जा सकता है। दोनो ही क्षेत्रों मे मेले के दौरान स्थानीय देवता की पालकी मेले का भ्रमण करती है। मेले मे मैलार्थी देवता के समक्ष शीश नवाकर सुख शांति का आर्शिवाद लेते है। मेले के दौरान जलेबी मुख्य मीठा व्यंजन होता है जिसका मैलार्थी आज भी स्वाद लेते है। दोनो क्षेत्रों मे बिशु मेले एक ही महिने मे होते है और आज भी यह पंरपरा बरकरार है। फिर भी प्राचीन संस्कृति को बचाने वाले गिरिपार क्षेत्र को जनजातिय का दर्जा नही मिल पाया है। गिरिपार क्षेत्र के बुद्विजीवी और हाटी समीति की केंद्रिय कार्यकारिणी के महासचिव कुंदन सिंह शास्त्री बतातें है कि जोंसार मे जो संस्कृति व परंपराएं है, गिरिपार मे भी वही समान परंपराएं व संस्कृति आज भी कायम है। ऐसे मे गिरिपार को उक्त दर्जे के हक से दूर रखना कतई

न्यायसंगत नही है। उन्होने बताया कि इस मुददे को राजनैतिक उठापटक मे फंसाने की बजाय सभी को मिल जुलकर जोरदार तरीके से केन्द्र के समक्ष उठाना चाहिए तभी गिरिपार क्षेत्र की यह चिर लम्बित मांग पूरी हो सकती है।
वहीं, धर्म, संस्कृति व पर्व के धनी जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र मे गुरूवार से बिशु मेलों का आयोजन शुरु हो गया है। यह आयोजन बैसाख की संक्रांति के दिन से मस्तभोज के शरली बिशु मेले से आरंभ हुआ है। प्रदेश भर में अनेको देवी-देवताओ के पूजन व मेलों की कई विशेष परंपराएं है। इसी तरह सिरमौर जिले के गिरिपार क्षेत्र में भी बिशु मेले की ऐसी परंपराए है जिसे जनता सदियों से निभा रही है। गिरिपार मे सदियों से हर साल विभिन्न स्थानों पर बिशु मेलों को आयोजन होता रहता है। यह आयोजन बैसाख संक्रांति से शुरु होता है। इस बीच पूरे एक माह क्षेत्र मे दर्जनों स्थानो पर बिशु मेलों का आयोजन होता रहता है। यह आयोजन क्षेत्र के गिरनौल, शिलाई, कफोटा,

दुगाना, तिलोरधार, कान्टी मश्वा, सतौन, सुईनल व जाखना सहित चानपुरधार समैत संगड़ाह के अनैकों स्थानों पर होता है। पूरे माह ये आयोजन जगह जगह चलते रहते है। इन मेलो में श्रद्वालु स्थानीय कुल देवता को पालकी में बिशु मेले में ले जाते है। वहां मेले में आने वाले लोग उनके दर्शन करेगें। फिर उसी दिन शाम को देवता की पालकी वापस अपने-अपने क्षेत्रो के मंदिरो में लौट जाएगी। यह बिशु मेले जहां लोगों की आस्था के प्रतीक है वहीं विलुप्त हो रही पारंपरिक संस्कृति की मिसाल पेश करती है।