आधुनिकता के दबाव में हिमाचल की सांस्कृतिक विरासत- प्रो0 गोपाल ddnewsportal.com
आधुनिकता के दबाव में हिमाचल की सांस्कृतिक विरासत- प्रो0 गोपाल
मेलों मे दिखता है संस्कृति का ह्रास, संस्कृति संवाहकों का पुरसा हाल पूछने वाला नहीं कोई...
देवतुल्य देव संस्कृति के संवाहकों को धत्ता बताकर संस्कृति के नाम पर हम लोगों को पाशविक व शरीर प्रधान व शरीर केंद्रित संगीत परोसकर आयातित कलाकारों को तो मालामाल कर रहे हैं, परन्तु हमारे बजंतरी एवं लोक कलाकार दो जून रोटी के लिए तरस रहे हैं...
हमारे धार्मिक शास्त्रों को ध्यान से पढ़ने पर हमें जीवन के सन्दर्भ में कई सूक्ष्म तथ्यों की जानकारी मिलती है, जैसे परिवार व्यवस्था, ग्राम, नगर, जनपद एवं राष्ट्र व्यवस्था। समकालीन समाजनियंता समाज के प्रत्येक वर्ग के न केवल सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते थे, अपितु, समय-समय पर समाज को उनकी प्रथमिकता का बोध उनकी कार्य कुशलता एवं प्रवीणता का दर्शन कराने की अद्भुत समाज व्यवस्था का प्रावधान भी करते थे। इसका एक छोटा सा उदाहरण हमें रामायण से मिलता है, जहां भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने केवट से सहयोग लेकर उसके कार्य को उच्चता प्रदान कर उसे भी अविस्मरणीय बना दिया। संभवत: समूचा देश भले ही प्रारम्भ में छोटी-छोटी रियासतों में बंटा रहा हो, परंतु कहीं न कहीं कुछ न कुछ उस वैदिक परंपरा का निर्वहन करता आया है। रियासतें अलग थी परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से संपूर्ण भारत
एकात्मता का भाव लिए था। जबकि वामपंथी इतिहासकारों ने प्राय: यही बताने का प्रयास किया कि यह देश कभी भी एक नही था। यह देश छोटी छोटी बंटी हुई राज्य इकाईयों का विलग विलग समूह था। आज देश में रियासतों ने लघु नगर एवं जनपदों का स्वरूप ज़रूर ले लिया होगा और कहीं-कहीं पर वह संस्कृति लुप्तप्राय: भी हुई हो सकती है, परन्तु हिमाचल प्रदेश इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है। हिमाचल प्रदेश में आज भी वह देव संस्कृति जीवित दृष्टिगत होती है। आज भी विभिन्न मेलों के माध्यमों से हम इसका रसपान कर अभिभूत होते हैं। इसी देव संस्कृति की एक सशक्त इकाई है - बजंतरी समुदाय, जिन्होंने हिमाचल की देव प्रधान्यता को एक विशिष्टता प्रदान करने में अहम भूमिका का निर्वहन किया है, परन्तु आज समूचे प्रदेश में इन बजंतरियों की दशा एवं दिशा चिंताजनक स्तर पर पहुँची है, जिसके लिए कहीं न कहीं हम समाज के तथाकथित ठेकेदार ही जिम्मेदार हैं। मेलों के माध्यम से हम उस जीवनदायिनी संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास करते हैं, परन्तु आज इन मेलों में, जिनमें कई अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के हैं - संस्कृति का ह्रास होते देखते हैं। जहां पर मनोरंजन के नाम पर फिल्म संगीत पर आधारित नृत्य व फूहड़ गीत-संगीत का बोलबाला दिखता है। वास्तव में इन मेलों में विभिन्न देवताओं के बजंतरियों के मध्य एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का आयोजन कर जहां इन मेलों को एक ऊँचाई प्रदान की जा सकती है, दूसरी तरफ इन कलाकारों की जीर्ण-शीर्ण होती हुई दुरावस्था में भी सुधार लाया जा
सकता है। आज समूचा समाज फूहड़ संस्कृति से अभिभूत है। अत: यह उन आयोजकों का कर्तव्य बनता है कि हमारी संस्कृति के संवाहक रसातल में न जाकर उसे अक्षुण्ण बनाने की दिशा में अग्रसर हों। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में चित्रपट संगीत का योगदान मेरी समझ से परे है। वैसे तो पारिवारिक मांगलिक कार्यक्रमों में भी मांगलिक धुन के स्थान पर इंद्रिय सुख प्राधान्य संगीत को प्रश्रय दिया जा रहा है। कैसी विडम्बना है कि देवभूमि में देवतुल्य देव संस्कृति के संवाहकों को धत्ता बताकर संस्कृति के नाम पर हम लोगों को पाशविक व शरीर प्रधान व शरीर केंद्रित संगीत परोसकर आयातित कलाकारों को तो मालामाल कर रहे हैं, परन्तु हमारे बजंतरी एवं लोक कलाकार दो जून रोटी के लिए तरस रहे हैं और तो और कई बार इन कलाकारों को आयोजन समिति के सदस्यों के समक्ष कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए याचना करनी पड़ती है। यह आश्चर्य का विषय नहीं होगा कि यदि यही क्रम चलता रहा तो आने वाले समय में बजंतरी हमारे संग्रहालयों में कौतूहल का विषय एवं शोभा होंगे तथा उनका स्थान लेंगे मुंबई छाप नर्तक-नर्तकियां, जिनका कोई सांस्कृतिक आधार नहीं होता। नवाधुनिकता के नाम पर फ्यूजन म्युज़िक के नाम पर हमारे समाज को हम उच्छिष्ट परोस रहे हैं। यह विडम्बना है आज के इस भौतिकोपचारिक समाज की, कि जब तक व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए संघर्ष न करे, उसे जानते-बूझते हुए भी उसके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। एक समय था, जब एक व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक था, जिससे उसके अधिकारों की सुरक्षा स्वतः हो जाती थी, परन्तु आज स्थिति भिन्न है। तथापि आज ये कलाकार आंदोलन की तैयारी में लगे हैं। संस्कृति के नाम पर सांस्कृतिक पारम्परिक नृत्य, लोकगीत
एवं लोक कथाओं पर आधारित कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देने की बजाय स्तरहीन, भद्दी एवं आदर्श रहित नैतिकता से परे कार्यक्रमों को महत्व से निष्पादन अधिकारियों की भावना हमारी समझ से परे दिखती है। एक बार इन कार्यक्रम निष्पादकों का भी अभिविन्यास इस दृष्टि से करना चाहिए।किसी भी समाज की पहचान उसके अस्तित्व तथा गुरुत्व, समाज निहित एवं परिलक्षित संस्कृति के माध्यम से ही होती है, जिस भी समाज ने संस्कृति की अवहेलना अदूरदर्शिता से पूरित कपोल कल्पित भय का प्रदर्शन कर किया, वह समाज निश्चित रूप से अधोगति को प्राप्त होता है, हुआ है तथा होता रहेगा। ऐसे तथ्यों को हम कटु सत्य की संज्ञा देने को मजबूर होते हैं। हमारी हिमाचली संस्कृति देव प्रदत्त अमूल्य धरोहर है, साक्षात शिवा है, इसको पोषित कर जीवंत रखना हमारा दायित्व है। वर्ष पर्यन्त समूचे प्रदेश में होने वाले इन्हीं मेलों को संस्कृति के फूहड़ व्यंग्य का सरल व सुगम माध्यम बनाया जा रहा है। पाश्चात्य देशों में संस्कृति उच्छृंखलता प्रधान है, वहां पर व्यक्ति के लिए शरीर सब कुछ है, वहां पर एक-दूसरे के प्रति संबंधों में प्रामाणिकता की कमी होती है।यही कारण है कि एक व्यक्ति 50 वर्ष की अवस्था आते आते कई बार विवाह कर लेता है। यह सभी कुछ उत्तर-आधुनिकतावाद संस्कृति के नाम पर किया जाता है। परंतु समय रहते यदि हम जागृत नही हुए तो हमारे धार्मिक मेले अधार्मिक, अवैधानिक, अपारंपरिक व असांस्कृतिक निमित्त बनकर रह जायेंगे और प्रत्येक दिन कुसांस्कृतिक संध्या का आयोजन होता रहेगा। मेलों को चित्रपट व लोकप्रिय (आधुनिक) गीतों के फरमाइशी कार्यक्रम बनाने के स्थान पर लोक प्रचलन में स्थापित गीत, नाट्य व नृत्य-नाटिका का मंचन श्रेयस्कर होगा। इन आयोजनों में लाखों रूपए खर्च होते हैं।
परंपराओं की बलिवेदी पर परंपराओं का निर्वहन कदाचित हमारे जीवन का अपरिहार्य अंग बनता जा रहा है। आज हम वैदिक सभ्यता की धवल चादर के अंदर कदाचित आसुरी व इंद्रिय सुख प्राधान्य संगीत-कला में, आत्मविभोर हो, चतुर्दिक उस संगीत एवं ललित कला की सराहना में रत अपने उत्तरदायित्वों की इतिश्री कर रहे हैं। अंग्रेजों ने हमारे समाज को समझने में देरी नहीं की। उन्हें हमारे देश की परम्पराओं ने साम्राज्य फैलाने के चंद दिनों में ही बता दिया कि यह देश अत्यंत समृद्धशाली ज्ञानी जनों का देश है। अतुल्य भंडार व्यक्ति को कृपण नहीं बना सकता। यह समाज उपनिषदिक विचार 'त्येन त्यक्तेन भुजिथा' के सूत्र-रस में डूबा हुआ समाज है। इस देश पर राज करना है, तो पहले इनकी संस्कारप्रद दैनंदिन जीवन मूल्यों को ही जड़ से काट दो और फिर उन्होंने हमारे भारत को हमें ही, अपने नजरिए से पढ़ाना प्रारंभ किया। उन्होंने ही बताया कि भारत साधु, संन्यासियों व सपेरों का देश है। यह राजा महाराजओं का देश है। यह सब बताते समय उन्होने वैदिक विचार एवं उपनिषद के गूढ़ विचारों से समृद्ध भारत का चित्र प्रस्तुत नहीं किया, क्योंकि वह उनके मूल प्रवृति एवं उद्देश्य के सर्वथा विरूद्ध था। संस्कारों एवं सभ्यता की दृष्टि से वे हमसे हजारों वर्ष पिछड़े थे और आज भी हैं। आज जिसे हम सभ्यता का विकास कहते हैं, दरअसल वह सब कुछ शरीर तत्त्व का विकास है, जो बाहर की दुनिया को देखकर हुआ है। जब से हमने बाहरी विकास को वास्तविक विकास का दर्जा देना प्रारंभ किया, हमारा पतन प्रारंभ होने लगा। जिस देश की प्राणवायु ही अंतर्विकास पर आधारित थी, वह बहिर्विकास द्वारा जीने का प्रयास करने लगी। हमारे देश में मेले, उत्सव, आयोजन, कार्यक्रम इत्यादि दस, 15 या कुछ सौ वर्ष पुरानी परंपराओं के अंग नहीं हैं। अपितु आदिकाल से ही हम इन्हें मनाते चले आए हैं। इन आयोजनों के मूल मंत्र को हमने व्यवहार में पिरोकर वंशानुवंश पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने का अद्वितीय चक्र स्थापित किया फिर वो चाहे राम लीला हो या कृष्ण लीला। आज हम इन मेलों तथा उत्सवों में अपने अतीत की समृद्ध संस्कृति को ढूंढ रहे हैं। पूरे देश तथा प्रदेश में मेलों के नाम पर पाशविक व शरीर प्रधान सांस्कृतिक संध्या का आयोजन हो रहा है। महिलाओं एवं पुरूषों को इस प्रकार के मंच से 'आइटम' के रूप में प्रस्तुत कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम दिया जा रहा है। इन मेलों को चित्रपट व लोकप्रिय (आधुनिक) गीतों के फरमाइशी कार्यक्रम बनाने के स्थान पर लोक प्रचलन में स्थापित गीत, नाट्य व नृत्य-नाटिका का मंचन श्रेयस्कर होगा। इन आयोजनों में लाखों रूपए खर्च होते हैं, परन्तु हमारे लोक कलाकार एवं बजंतरी दो जून रोटी के लिए तरसते रहते हैं।
सूक्ष्मता से देखने पर यही लगता है कि संस्कृति संवाहकों का पुरसा हाल पूछने वाला कोई नहीं है। मुझे समझ में नहीं आता कि क्योंकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों को 'रंगारंग’ कार्यक्रम कहा जाता है। 15 विभिन्न कार्यक्रमों में एक-दो संस्कृति से जुड़े शेष प्राय: लोकप्रिय चित्रपट या ध्वनिमुद्रण संगीत परोस कर धनाढ्य कलाकारों को और मालामाल किया जा रहा है। प्रायः कार्यक्रमों व कलाकारों के चयन में उच्च व निम्र स्तर पर विचित्र, परन्तु अवांछनीय गणित का प्रयोग होता है। मुझे लगता है वर्ष के प्रारंभ में या छह महीने पहले ऐसे लोक कलाकार तथा गायकों के मध्य प्रतियोगिता के लिए तैयारी कराई जा सकती है। इन कार्यक्रमों के माध्यम से ही हमारी सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित किया जा सकता है। इन कार्यक्रमों में लिए गए प्रसंगों का संबंध स्थानीय कला, संस्कृति, जीवन मूल्य, चरित्र प्रसंग, वीर गाथा, उपलब्धि इत्यादि से रचा जाए न कि मात्र प्रेम प्रसंग ही हो। सामान्यत: आज युवावर्ग
प्रेम प्रसंगों से परिपूर्ण गीत ही सुनना पसंद कर रहा है। इस प्रकार के सुझाव को यह कहते हुए भी साफ कर दिया जाता है कि लोकगीत व नृत्य लोग पसंद नहीं करते। इन्हें समझना पड़ेगा कि हम पागल प्रेमियों तथा दीवनों के वंशज नहीं हैं। हमारी पहचान उन वीर पुरूषों, महिलाओं तथा पूर्वजों के गरिमामय जीवन प्रसंगों द्वारा है और इसके इतर कुछ नहीं। यदि हमारी संस्कृति की झलक ही लेनी है, तो कार्यक्रम निष्पादकों को यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि हमारी युवा पीढ़ी संस्कृति के स्तंभ प्रतीक लोकगीत के संदर्भ में क्या जान सकती है। इन कार्यक्रमों की गुणवत्ता को ध्यान में रखा जाए, तो हमारी युवा पीढ़ी को यह सब क्यों नही रास आएगा। क्यों हम श्रंगार रस में ही सराबोर हो रहे हैं। देखना होगा कि भविष्य की पीढ़ी के लिए हम कितना कुछ संचित कर दे सकते हैं। आज भी हिमाचल प्रदेश में बहुत से लोक कलाकार लोकगीत लेखक अतीत के प्रसंगों पर आधारित हारूल,नाटी व गीतिका लिखकर उसे संजोने का काम कर रहे हैं। आवश्यकता है कि हम अपने सांस्कृतिक पारम्परिक कार्यक्रमों को सुरुचिपूर्ण तरीके से प्रस्तुत कर लोगों में अभिरूचि उत्पन्न करें।
- प्रो. नंदूरी राजगोपाल (लेखक हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्व विद्यालय में सह-आचार्य एवं अध्यक्ष आंग्ल भाषा साहित्य व हिन्दी विभाग और अमेरिकी जनजातीय अध्ययन केंद्र के निदेशक होने के साथ साथ सामाजिक चिंतक भी हैं)